अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की ओर से डूसू अध्यक्ष पद की उम्मीदवार ''नुपुर शर्मा'' के दिन भर के व्यस्त शिड्यूल से निपटने के बाद उमाशंकर मिश्र ने उनसे विभिन्न विषयों पर गहन चर्चा की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश -
डूसू प्रत्याशियों से मिलने जब शाम को हम 6-महादेव रोड स्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के चुनाव कार्यालय पहुंचे तो अध्यक्ष पद की उम्मीदवार नुपुर शर्मा आगामी रणनीतियों को लेकर चल रही एक बैठक में मशगूल थीं। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद जब हम उनसे मिलने गए तो बैठक ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन उनकी व्यस्तता यथावत् बनी हुई थी। उनसे मुझे जब मिलवाया जाता है तो दिन भर की थकान के बावजूद भी एक औपचारिक मुस्कान नुपुर के चेहरे पर तैर जाती है और जैसे ही वे ''हैल्लो'' कहती हैं तो पता चलता है कि चुनाव अभियान में छात्रों के सवालों के जवाब देकर और उनके बीच अपनी बात को रखने के लिए लगातार भाषणों के सिलसिले के चलते उनका गला बैठ चुका था।
बातचीत शुरू होती है तो अपने दिन भर के अनुभवों के बारे में वे बताने लगती हैं और कहती हैं कि ''अभी तक जिस तरह से छात्रों ने उत्साहपूर्वक एबीवीपी को समर्थन दिया है, उससे हमें अच्छे परिणाम की अपेक्षा है।'' जब उनसे पूछा जाता है कि चुनाव प्रचार किस तरह से किया जा रहा है तो नुपुर बताती हैं कि ''सबसे पहले तो हम छात्रों से रूबरू होते हैं और उन्हें ये बताने की कोशिश करते हैं कि 'दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ' के लिए वे 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्' के प्रत्याशियों को ही क्यों चुनकर भेजें। इसके लिए विद्यार्थी परिषद् की ओर से ग्लैमर और मनी एवं मसल पावर से अलग हटकर छात्रों के बुनियादी मुद्दों को आधार बनाया जा रहा है और अभाविप के मुद्दे जमीनी हकीकत से जुड़े हुए हैं।
आज दिल्ली विश्वविद्यालय को वैश्विक रंग में रंगने की तैयारियां की जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर कॉलेजों के टॉयलेट से लेकर पुस्तकालय, आंतरिक मूल्यांकन, यू स्पेशल, छात्रावासों का निर्माण इत्यादि की स्थिति अभी भी संतोषजनक नहीं है।
नुपुर कहती हैं कि यह बात काबिले-गौर है कि विगत छात्रसंघ प्रशासन की उपेक्षा से दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र त्रस्त हो चुके थे और इसी के चलते उन्होंने परिवर्तन का मन बना लिया है। बकौल नुपुर शर्मा 'इस बात की झलक छात्रों से बातचीत के दौरान देखने को मिल जाती है कि बुनियादी समस्याओं के लिए भी छात्रों को झूझना पड़ रहा है। आगे वे कहती हैं कि ''आज दिल्ली विश्वविद्यालय को वैश्विक रंग में रंगने की तैयारियां की जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर कॉलेजों के टॉयलेट से लेकर पुस्तकालय, आंतरिक मूल्यांकन, यू स्पेशल, छात्रावासों का निर्माण इत्यादि की स्थिति अभी भी संतोषजनक नहीं है। इस तरह के केन्द्रीय स्तर के विश्वविद्यालय में जहां विभिन्न स्रोतों से अनुदान मिल रहा हो, वहां यह सवाल ऐसे में उठना लाजमी है कि आख़िर यह पैसा कहां जा रहा है? इसलिए हम बेसिक मुद्दों को लेकर चल रहे हैं; क्योंकि हमारा मानना है कि पहल नीचे से ही करनी होगी, तभी इमारत मजबूत बनाई जा सकती है। दक्षिणी परिसर के कॉलेजों में बसों के न होने की समस्या को जोर शोर उठाते हुए नुपुर कहती हैं कि मेन रोड से अंदर कॉलेज तक पहुंचने में छात्रों को करीब एक से दो किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है, ऐसे में उनकी पूरी उर्जा पैदल चल कर कॉलेज पहुंचने में खर्च हो जाती है।
हॉस्टल की बात करते हुए कहती हैं कि मैं 5 साल से संगठन में हूं और यहां रहकर मैने अन्य प्रदेशों से आने वाले छात्रों की समस्याओं को करीब से देखा है, जिन्हें पर्याप्त हॉस्टल न होने के कारण पीजी में रहना पड़ता है। नुपुर कहती हैं कि यह नहीं भूलना चाहिए कि हरेक छात्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी नहीं होती कि वह पीजी में रहने का खर्च वहन कर सके। इसलिए हमने हॉस्टलों को संख्या बढ़ाने के लिए मुहिम छेड़ने का फैसला किया है, जिससे छात्रों के रहने की समस्या को समाप्त किया जा सके। दूसरी ओर ओलंपिक जिस तरह से ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े युवा मेडल जीत कर लाए हैं उससे आशा की किरण तो दिखाई देती है, लेकिन इस बात पर विचार करना होगा कि एक अरब की आबादी में क्या हम सिर्फ तीन मेडल जीतने की ही कूव्वत रखते हैं?'' बकौल नुपुर; हमें यह भी सोचना होगा कि विश्वविद्यालयी स्तर पर किस तरह की सुविधाएं खिलाड़ियों को मिल पा रही हैं। फिलहाल विद्यार्थी परिषद् ने खेलों का स्तर सुधारने को अपनी प्रतिबध्दताओं की सूची में शामिल कर लिया है, जिससे कि गांव-गांव में कुश्ती और दंगलों वाले इस देश को आत्मविश्वास से लबरेज युवाओं को भविष्य में इस तरह वर्षों तक धोबी पछाड़ न खानी पड़े।
नुपुर हिन्दू कॉलेज में रही हैं और फिलहाल वे लॉ-सेन्टर-1 की छात्रा हैं। वे बताती हैं कि ''लॉ स्टूडेंट होने के नाते मैंने कई जगह काम किया है, इसलिए अपने अनुभवों के आधार पर मैंने यह महसूस किया है कि तकनीक आधुनिक युग की आवश्यकता है और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान के छात्रों को अब तकनीक की दुनिया से जोड़ने का वक्त आ गया है। रामजस कॉलेज ने वायरलेस इंटरनेट का प्रयोग शुरु भी कर दिया है। नुपुर अपने छात्र जीवन के अनुभवों को आधार बताते हुए आगे कहती हैं कि न केवल रिसर्च बल्कि डाटा स्टोरेज एवं अध्ययन में भी कंप्यूटर एक अनिवार्य आवश्यकता बन चुका है। ऐसे में छात्रों को लैपटॉप पर अध्ययन करने को यदि मिल जाए तो निश्चित तौर पर इसके चमत्कारिक परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
दिन भर की भागम-भाग के बावजूद भी ताजगी नुपुर के चेहरे पर बनी रहती है और बड़ी ही चुस्ती से वे सवालों के जवाब आत्मविश्वासपूर्ण लहजे में देती हैं। वे बताती हैं कि प्रचार के दौरान हम छात्रों के बीच जाकर उन्हें अपने बारे में बताते हैं और छात्र जब विस्तार से कुछ जानना चाहते हैं तो उसके बारे में भी बताकर उनको संतुष्ट करने का प्रयास किया जाता है। जब उनसे छात्र राजनीति में आने के बारे में सवाल पूछा जाता है तो वे कहती हैं कि ''हिन्दू कॉलेज में रहकर मैंने एक्टिविज्म को सीखा है, क्योंकि इस कॉलेज के छात्रों में सामाजिक एवं राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर भी न केवल चर्चा चलती रहती है, बल्कि उनको लेकर काम भी किया जाता है। इस तरह से नुपुर के एक्टिविज्म का सफर हिन्दू कॉलेज के कॉरीडोर से शुरु होकर डूसू के पायदन तक आ पहुंचता है और वे पूरे विश्वविद्यालय के हजारों छात्रों की अगुआ के रूप मे उभर कर सामने आती हैं। वे बताती हैं कि उन दिनों हमने जेसिका लाल मर्डर केस के आरोपियों को लेकर बरती जा रही पुलिसिया कोताही को लेकर आवाज उठाई थी। इसके लिए एक ग्रुप बनाकर ब्लाग पर इसके खिलाफ अभियान चलाया गया और ई-मेल के जरिये हमने करीब 5 हजार लोगों से जेसिका को न्याय दिलाने के लिए आगे आने की अपील की। नुपुर बताती हैं कि इस तरह के अभियानों का असर यह हुआ कि इससे सिर्फ कॉलेज के दोस्त ही नहीं; बल्कि स्कूल के पुराने दोस्तों को भी जब इन गतिविधियों के बारे में पता चला तो वे भी इसका हिस्सा बनने के लिए आने लगे।
एबीवीपी से जुड़ने के कारणों में नुपुर संगठन की विचारधारा और दृष्टिकोण को महत्व देती हैं। वे कहती हैं कि परिषद् छात्रों के सामाजिक, व्यैक्तिक और अकादमिक स्तर पर विकास की प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करती है। जबकि अन्य छात्र संगठनों में ऐसा नहीं है। नुपुर शर्मा एक लम्बी आह भरते हुए कहती हैं कि ''विद्यार्थी परिषद् में रहकर मैंने सीखा कि जिसे अन्य लोग छात्र राजनीति से जोड़कर देखते हैं, उसे परिषद् में एक्टिविज्म कहा जाता है। बस फिर क्या था, मेरे भीतर के एक्टिविस्ट को अब एक मंच मिल गया था। परिषद् ने भी मेरी क्षमताओं को परखकर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के प्रतिनिधि के तौर पर चुनने का फैसला किया।'' चुनाव में ग्लैमर को नुपुर महत्व नहीं देती। वे कहती हैं कि अपनी छाप छात्रों पर छोड़ने के लिए लीडरशिप क्वालिटी होना बेहद जरूरी है। इसके साथ साथ इंटीलेक्चुअल एवं बेहतर पर्सनैल्टी का होना भी आवश्यक है, जिससे कि वह दृढ़ता से छात्रों के हित की बात प्रशासन के समक्ष रख सके।
लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों को लेकर नुपुर की प्रतिक्रिया मिलीजुली है। वे कहती हैं कि इसके बहुत पहलुओं से तो चुनाव सुधारों को बल मिलता है, लेकिन कुछेक ऐसे पहलू भी हैं जो समझ से परे हैं। वे सवाल उठाते हुए कहती हैं कि 5 हजार रुपये खर्च की सीमा में रहकर 51 कॉलेजों में प्रचार करना आसान नहीं है। लेकिन हमने हार नहीं मानी है और इसी के चलते हम रिक्शे में बैठकर भी छात्रों तक पहुंच रहे हैं। हारे हुए उम्मीदवारों को दोबारा टिकट न दिया जाना एक जहां एक ओर अलोकतांत्रिक है, वहीं दूसरी ओर चुनाव लड़ने के लिए उपस्थिति की सीमा को बढ़ा देना भी सही नहीं कहा जा सकता है।
'छात्र राजनीति' या फिर नुपुर के शब्दों में कहें तो 'एक्टिविज्म' से हटकर मुख्यधारा की राजनीति में जाने की मंशा फिलहाल नुपुर की नहीं है। अभी वे और पढ़ना चाहती हैं। नुपुर को चाहे वह राजनीति हो, एक्टिविज्म या फिर पढ़ाई सभी स्तरों पर परिवार का पूरा सपोर्ट मिलता है। इसके लिए वे माता-पिता और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए गर्दन हिलाकर फिर से वही औपचारिक मुस्कान बिखेरती हैं और मुझे भी धन्यवाद देते हुए बैग उठाकर चल पड़ती हैं।
2 comments:
Bahut hi badhiya sakshatkar prastut kiya hain aapne. Umashankar Mishra ko badhai. Unki lekhni ko salam. Itna jeevant Interview bahut dinon baad dekha.
INTZAR KE DIN BAS AB CHAND HAI.
FIR, JEET KE PHOOL SE KHUSIYO KI SUGANDH HAI.
AAPKI AAWAJ SE LAGTA HAI ESE
JEET KE RAHENGE,IRADE BULAND HAI.
LOKESH SEETHA
FROM SAWAI MADHOPUR(RAJ.)
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